आम लोगों को न्याय दिलाने और अफसरशाही के कुचक्र से बाहर निकालने के लिए सूचना का अधिकार यानी आरटीआई कानून को आज से १३ वर्ष पूर्व पूरे देश में लागू किया गया। इस आरटीआई कानून को दूसरी आजादी बताकर सरकार ने इसे पेश तो किया लेकिन जब यह कानून उनकी सरकार के लिए सिरदर्द साबित होते ही इस कानून की धार को कमजोर करने की बार बार कोशिश की गई। पूरे देश में अब तक ६७ आरटीआई कार्यकर्ताओं की मौत और ३७० से अधिक हमलों से आरटीआई कानून ख़ौफ़नाक बन चूका हैं।
सूचना का अधिकार को पाने के लिए देशवासियों को जो मशक्कत करनी पड़ी हैं उसपर नजर डाली जाए तो हम स्वीडन और अन्य देशों की तुलना में काफी पिछड़े हुए हैं। सूचना का अधिकार अर्थात राईट टू इन्फाॅरमेशन। सूचना का अधिकार का तात्पर्य है, सूचना पाने का अधिकार, जो सूचना अधिकार कानून लागू करने वाला राष्ट्र अपने नागरिकों को प्रदान करता है। सूचना अधिकार के द्वारा राष्ट्र अपने नागरिकों को अपनी कार्य और शासन प्रणाली को सार्वजनिक करता है। अंग्रज़ों ने भारत पर लगभग २५० वर्षो तक शासन किया और इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने भारत में शासकीय गोपनीयता अधिनियम १९२३ बनाया था जिसके अन्तर्गत सरकार को यह अधिकार हो गया कि वह किसी भी सूचना को गोपनीय कर सकेगी। लेकिन सूचना का अधिकार ने इस गोपनीयता को कुछ मामलों का अपवाद छोड़ा जाए तो खारिज करने का काम किया हैं। वर्ष १९४७ में भारत को स्वतंत्रता मिलने बाद २६ जनवरी १९५० को संविधान लागू हुआ, लेकिन संविधान निर्माताओ ने संविधान में इसका कोई भी वर्णन नहीं किया और न ही अंग्रेज़ो का बनाया हुआ शासकीय गोपनीयता अधिनियम १९२३ का संशोधन किया। आने वाली सरकारों ने गोपनीयता अधिनियम १९२४ की धारा ५ व ६ के प्रावधानों का लाभ उठकार जनता से सूचनाओं को छुपाती रही। सूचना के अधिकार के प्रति कुछ सजगता वर्ष १९७५ के शुरूआत में “उत्तर प्रदेश सरकार बनाम राज नारायण” से हुई। इस मामले की सुनवाई उच्चतम न्यायालय में हुई, जिसमें न्यायालय ने अपने आदेश में लोक प्राधिकारियों द्वारा सार्वजनिक कार्यो का व्यौरा जनता को प्रदान करने का व्यवस्था किया। इस निर्णय ने नागरिकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद १९ (ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दायरा बढ़ाकर सूचना के अधिकार को शामिल कर दिया।
वर्ष १९८२ में द्वितीय प्रेस आयोग ने शासकीय गोपनीयता अधिनियम १९२३ की विवादस्पद धारा ५ को निरस्त करने की सिफारिश की थी, क्योंकि इसमें कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया था कि ’गुप्त’ क्या है और ’शासकीय गुप्त बात’ क्या है ? इसलिए परिभाषा के अभाव में यह सरकार के निर्णय पर निर्भर था कि कौन सी बात को गोपनीय माना जाए और किस बात को सार्वजनिक किया जाए।बाद के वर्षो में साल २००६ में ’वीरप्पा मोइली’ की अध्यक्षता में गठित ’द्वितीय प्रशासनिक आयोग’ ने इस कानून को निरस्त करने का सिफारिश किया। सूचना के अधिकार की मांग राजस्थान से प्रारंभ हुई। राज्य में सूचना के अधिकार के लिए १९९० के दशक में जनआंदोलन की शुरुआत हुई,जिसमें मजदूर किसान शक्ति संगठन द्वारा अरुणा राय की अगुवाई में भ्रष्टाचार के भांडाफोड़ के लिए जनसुनवाई कार्यक्रम के रूप में हुई। महाराष्ट्र में अण्णा हजारे ने अनशन और आंदोलन के जरिए बुलंद आवाज दी। वर्ष १९८९ में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद वीपी सिंह की सरकार सत्ता में आई,जिसने सूचना का अधिकार कानून बनाने का वायदा किया। ३ दिसंबर १९८९ को अपने पहले संदेश में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने संविधान में संशोधन करके सूचना का अधिकार कानून बनाने तथा शासकीय गोपनीयता अधिनियम में संशोधन करने की घोषणा की। किन्तु वीपी सिंह की सरकार तमाम कोशिश करने के बावजूद भी इसे लागू नहीं कर सकी और यह सरकार भी ज्यादा दिन तक न टिक सकी।
वर्ष १९९७ में केंद्र सरकार ने एच.डी शौरी की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित करके मई १९९७ में सूचना की स्वतंत्रता का प्रारूप प्रस्तुत किया, किन्तु शौरी कमिटी के इस प्रारुप को संयुक्त मोर्चे की दो सरकारों ने दबाए रखा। वर्ष २००२ में संसद ने ’सूचना की स्वतंत्रता विधेयक (फ्रिडम आॅफ इन्फाॅरमेशन बिल) पारित किया। इसे जनवरी २००३ में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली, लेकिन इसकी नियमावली बनाने के नाम पर इसे लागू नहीं किया गया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने न्युनतम साझा कार्यक्रम में किए गए अपने वायदे के तहत पारदर्शिता युक्त शासन व्यवस्था एवं भ्रष्टाचार मुक्त समाज बनाने के लिए १२ मई २००५ में सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ संसद में पारित किया,जिसे १५ जून २००५ को राष्ट्रपति की अनुमति मिली और अन्ततः १२ अक्टूबर २००५ को यह कानून जम्मू-कश्मीर को छोड़कर पूरे देश में लागू किया गया। इसी के साथ सूचना की स्वतंत्रता विधेयक २००२ को निरस्त कर दिया गया। इस कानून के राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पूर्व नौ राज्यों ने पहले से लागू कर रखा था, जिनमें तमिलनाडु और गोवा ने १९९७,कर्नाटक ने २०००,दिल्ली २००१, असम,मध्य प्रदेश,राजस्थान एवं महाराष्ट्र ने २००२ तथा जम्मू-कश्मीर ने २००४ में लागू कर चुके थे।
देश में आरटीआई कानून लागू होने तक नागरिकों को जानने और सवाल पूछने का कोई विकल्प मौजूद नहीं था। देश के कई सारी जानीमानी हस्तियों और सामाजिक सरोकार रखनेवाले कार्यकर्ताओं ने सरकार पर दबाव बनाया ताकि आम जनमानस को उनके रोजमर्रा के जीवन में उपस्थित होनेवाले सवाल का फौरन जवाब मिल सके और जरुरतों को पूरा करने के लिए रास्ता बन सके। आरटीआई कानून को पूरे देश में लागू करने के पहले काफी विचार विमर्श हुआ और अन्य देशों में मौजूद इसतरह के कानून का अध्ययन कर एक मसूदा बनाया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह की नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इसे मंजूर कर आरटीआई कानून को लागू करवाया। इस कानून से भ्रष्टाचार मुक्त पारदर्शक प्रशासन की गारंटी तो दी गई साथ ही में सूचना की एक निश्चित सीमा तय भी की गई। इस कानून से किसे और कैसे लाभ हुआ? इस सवाल का जबाब उस हर व्यक्ति से मिलेगा जो अफसरशाही और रिश्वतखोरी से पीड़ित था और अपनी पहचान के लिए तरस रहा था। राशनकार्ड नहीं बन रहा हैं। बिजली का बिल अधिक आ रहा हैं। सड़क की मरम्मत क्यों नहीं हो रही हैं। तहसील से प्रमाणपत्र समय पर नहीं मिल रहा हैं। उत्तर पत्रिका देखनी हैं। मैरिज प्रमाणपत्र कब मिलेगा? न जाने कितनी छोटी समस्याओं का निराकरण एक आरटीआई अर्जी ने चुटकी बजाते ही कर दिया हैं। लेकिन सरकार येन केन प्रकारेण इसमें बदलाव करने के प्रयास में हैं।सूचना आयुक्तों की नियुक्ति समय पर नहीं होने से सूचना आयोग का काम प्रभावित हो रहा हैं और आरटीआई अपील की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही हैं। रिटायर्ड अफसरों को सूचना आयुक्त बनाकर सरकार इनसे अपरोक्ष अपेक्षा रखती हैं कि कोई ऐसा फैसला नहीं सुनाया जाए जिससे सरकार की छवि प्रभावित हो और जनता के बीच कोई गलत संदेश नहीं जाए।
वर्तमान की सरकार हो या अन्य सरकार, सत्ता में आते ही इन्हें कानून से घृणा होने लगती हैं और सत्ता से जाते ही ये आरटीआई कानून के पैरोकार बन जाते हैं। यूपीए सरकार से लेकर एनडीए सरकार ने समय समय इस कानून के प्रावधानों में तब्दीली की ताकि उनकी सरकार इस कानून से कम प्रभावित हो सके। एक ऐसा कानून जो १२५ करोड़ देशवासियों को जानने, समझने और सवाल पूछने का अधिकार प्रदान करता हैं, ऐसे कानून में बार-बार संशोधन कर इसकी धार को कमजोर करने की कोशिश हो रही हैं जबकि इस कानून का इस्तेमाल करने के बाद जो नए नए मामले उजागर हो रहे हैं उससे सरकार को लाभ ही मिल रहा हैं। टैक्स चोरी से लेकर अगनित मामलों से सरकार की तिजोरी भर रही हैं और सरकारी यंत्रणा पर नजर रखने के लिए आम लोग तीसरी आंख बनकर काम कर रहे हैं। उल्टे सरकार को सभी राज्यों में आरटीआई कानून का इस्तेमाल कर लोक सहभागिता को बढ़ावा देनेवाले कार्यकताओं को राज्य और देश स्तर पर सम्मानित करना चाहिए। आरटीआई कानून से आज राजनेता हो या सरकारी बाबू, इनपर दबाव बन चूका हैं कि गलत और गैरकानूनी काम करेंगे तो आरटीआई अर्जी आ जाएगी और उनकी पोल खुलेगी। ऐसे धारदार कानून की मदद लेकर सरकार की उन लोगों पर शिकंजा कसना चाहिए जो देशहित को नजरअंदाज करते हैं और जिनकी लापरवाही एवं भ्रष्टाचार से आम आदमी को बेमतलब की परेशानी उठानी पड़ती हैं।
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